Introduction
Osho Rajneesh: कहा जाता है कि किसी व्यक्ति का पर्सोना उसका स्वभाव अथवा चरित्र होता है जिसे वह दूसरों यानी जमाने के सामने पेश करता है. ऐसे में अगर कोई व्यक्ति ही रहस्य की खान बन जाए तो स्वाभाविक तौर पर उसे जानना, समझना और परखना बहुत कठिन-जटिल हो जाता है. ऐसे व्यक्ति को परखना इसलिए भी मुश्किल है कि वह अपने भीतर और बाहर दोनों तरफ रहस्य का आवरण ओढ़े होता है. कई बार ऐसा भी होता है कि व्यक्ति बिना प्रयास के ही रहस्यमयी शख्सियत बन जाता है.
अपने विवादास्पद बयानों के लिए मशहूर ओशो प्रशंसकों के लिए आध्यात्मिक गुरु थे तो कुछ के लिए सेक्स गुरु. वह आध्यात्मिक गुरु जो अंधकार से निकलने से पहले उसे भुगतने और परखने को कहता है. व्यावहारिक दृष्टिकोण के चलते रजनीश उर्फ ओशो को प्रशंसकों के साथ आलोचक भी सराहते हैं, क्योंकि वह सच को कटुता के साथ कहते थे, फिर चाहे किसी को बुरा लगे या भला. यही वजह है कि ओशो को शुरुआती दिनों में भगवान रजनीश के नाम से पहचान मिली. 11 दिसंबर, 1939 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा गांव में जन्में ओशो के जितने प्रशंसक हैं उससे ज्यादा आलोचक.
यही वजह है कि आज भी जब कभी ओशो का जिक्र आता है तो दुनिया दो धड़ों में साफ-साफ बंट जाती है. जाहिर तौर पर इनमें एक धड़ा ओशो को भगवान मानता है तो वहीं, दूसरा उन्हें खलनायक कहने में संकोच नहीं करता. विवादों के स्वामी बन चुके ओशो को दुनिया के 21 देशों में बैन तक कर दिया गया था. इतना ही नहीं, ओशो को वर्ष 1985 में जर्मनी में गिरफ्तार कर लिया गया था. विवाद और रहस्य से घिरे ओशो पर कभी इसका फर्क नहीं पड़ा कि कौन उनके साथ खड़ा है और कौन उनके खिलाफ है. लाइव टाइम्स की इस स्टोरी में आध्यात्मिक गुरु ओशो के बारे में वह बातें बताने जा रहे हैं, जो आपने शायद ही सुनीं हों.
Table Of Content
- साधना खत्म होने से 3 दिन पहले मौत
- ओशो को था नहाने का शौक
- बचपन में जाया करते थे श्मशान
- ओशो एक, नाम कई
- प्रभावशाली प्रवक्ता के तौर पर शुरुआत
- मौत का रहस्य कायम
- दिल का दौरा लिखने के लिए डाला था दबाव
- अंतिम संस्कार पर टूटा नियम
- 20वीं सदी के सबसे महान आध्यात्मिक गुरु
- पुणे से अमेरिका का रुख
साधना खत्म होने से 3 दिन पहले मौत
‘मुसीबतों से निखरती है शख्सियत यारों, जो चट्टानों से न उलझे वो झरना किस काम का…’ ऐसा लगता है यह पंक्ति ओशो के लिए ही लिखी गई है. 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा गांव में जन्में ओशो का असली नाम चंद्रमोहन जैन था. उनका जन्म अपनी नानी के घर हुआ था. बचपन से ओशो का स्वभाव और व्यवहार सामान्य बच्चों से अलग था. कहा तो यहां तक जाता है कि जब वह पैदा हुए थे तो 3 दिन तक न हंसे थे और न ही रोए थे.
यह हैरान कर देने वाली बात हो सकती है, लेकिन सच है. ओशो जैसे-जैसे बड़े होते गए तो उनमें सवाल पूछने और कुल मिलाकर जीवन से जुड़े रहस्य जानने की उत्सुकता बढ़ने लगी. युवा होते-होते ओशो तर्क करने में इतने माहिर हो गए कि वह गलत को सही और सही को गलत साबित कर दिया करते थे. ओशो ने कई बार अपने भक्तों से कहा है कि यह उनका पुनर्जन्म है. इसके बारे में तर्क भी दिया था. उन्होंने बताया था कि वह 750 साल पहले तिब्बत में पैदा हुए थे. इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि उनकी मृत्यु कैसे हुई थी? ओशो का कहना था कि वे एक दिन विशेष साधना कर रहे थे. सिर्फ 3 दिन की साधना रह गई थी तभी उनकी मौत हो गई. यही वजह है कि उन्हें दोबारा जन्म लेना पड़ा.

ओशो को था नहाने का शौक
साधना और प्रवचन के साथ ही ओशो को नहाने का बहुत शौक था. ओशो नहाने के बेहद शौकीन थे और उन्हें तैरना भी खूब पसंद था. वह करीब-करीब रोजाना सुबह 5 बजे ठंडे पानी से नहाते थे. इस आदत को उन्होंने अपने जीवन में उतार लिया था. उनके करीबी का कहना था कि नरसिंहपुर और गाडरवाड़ा के तैराकों के बीच एक प्रतिस्पर्धा हुई थी और उसमें ओशो ने भी भाग लिया था. इसी दौरान किसी ने कहा कि रजनीश क्या तैरेगा मेरे सामने. प्रतिस्पर्धा शुरू हुई तो तैराक कुछ देर तैरने के बाद डूबने लगा, लेकिन बड़ी मुश्किल से उसे बचा लिया गया. इसके उलट रजनीश घंटों तैरते रहे. कहा जाता है कि वह 2 दिन तक लापता रहे. जब मिले भी तो वह तैरने की अवस्था में. इस दौरान मामले में पुलिस की भी एंट्री हो गई. पुलिस ने जब रजनीश उर्फ ओशो से पूछा कि कहां थे तो उन्होंने मुस्कराकर जवाब दिया कि वह तो तैरने में मग्न थे.

बचपन में जाया करते थे श्मशान
रजनीश उर्फ ओशो में जितनी उत्सुकता जिंदगी को लेकर थी उससे कहीं अधिक जिज्ञासा मृत्यु को लेकर थी. वह बचपन से ही जिंदगी और मौत के रहस्य को लेकर उलझे रहे. उन्होंने दुनिया को दर्शन शास्त्र की एक नई विधा से परिचित कराया. ओशो के विचार इतने विशाल, तार्किक और शक्तिशाली होते थे कि अगर कोई व्यक्ति एक बार उन्हें सुन लेता तो उनका मुरीद हो जाता था. एक्टर विनोद खन्ना के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. वर्ष 1982 में जब विनोद खन्ना अपने फिल्मी करियर के पीक पर थे तब उन्होंने बॉलीवुड से संन्यास ले लिया. इसके बाद विनोद खन्ना ने अमेरिका जाकर ओशो की शरण ले ली. एक्टर ने ओशो के आश्रम में 4 साल बिताए थे. इसके बाद उनका करियर ही चौपट हो गया. इस बीच उनके प्रतिद्वंद्वी अमिताभ बच्चन सुपरस्टार बन चुके थे. खैर, यहां पर बात हो रही है ओशो की. वह बचपन से ही बहुत क्रांतिकारी थे.

उन्होंने अपने पूरे जीवन में परंपराओं और रूढ़िवाद का जमकर विरोध किया. वह दार्शनिक अंदाज में लोगों से जीवन और मृत्यु की चिंता छोड़कर खुशी से जीने के लिए कहा करते थे. बहुत कम लोग जानते होंगे कि ओशो बचपन से ही मौत को लेकर काफी विचारणीय रहते थे. कहा जाता है वह अपने बचपन में श्मशान घाट जाया करते थे. यह जानने के लिए कि आखिर मृत्यु के बाद लोग किधर जाते हैं ? वह श्मशान पर जाते और घंटों ध्यान करते थे. यह भी चाहते थे कि उन्हें कभी कोई बताए कि आखिर मौत के बाद आत्मा कहां जाती है? रजनीश उर्फ ओशो की इन हरकतों से परेशान होकर बनारस के प्रसिद्ध पंडित को उनकी कुंडली दिखाई गई. इस पर पंडित ने घरवालों को बताया था कि जीवन में 21 वर्ष की उम्र तक प्रत्येक सातवें वर्ष में इस बालक की मृत्यु का योग है. यह सुनकर परिजन के होश उड़ गए.

ओशो एक, नाम कई
ओशो की लोकप्रियता इसलिए भी बढ़ी कि वह किसी परंपरा, दार्शनिक विचारधारा या फिर धर्म का हिस्सा कभी नहीं रहे. देश-दुनिया में ओशो के लाखों की संख्या में प्रशंसक थे और आज भी हैं. ओशो की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि उनके आलोचक भी शालीनता से उनकी तारीफ करते थे. उन्हें ‘आचार्य रजनीश’ और ‘भगवान श्री रजनीश’ के नाम से भी जाना जाता था, लेकिन अपने लाखों प्रशंसकों, शिष्यों और अनुयायियों के लिए वह सिर्फ ‘ओशो’ थे. बहुत कम लोग जानते होंगे कि ‘ओशो’ का अर्थ है- वह शख्स जिसने अपने आपको सागर में विलीन कर लिया हो. ओशो की लोकप्रियता और अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया से रुखसत होने के 20 साल बाद भी उन पर और उनकी लिखी किताबें बिक रही हैं. ओशो के वीडियो और ऑडियो सोशल मीडिया पर आज भी खूब देखे और सुने जाते हैं.

प्रभावशाली प्रवक्ता के तौर पर शुरुआत
जब ओशो बड़े हुए तब उन्होंने अपने करियर की शुरुआत वर्ष 1957 में रायपुर (तब मध्य प्रदेश और अब छत्तीसगढ़ में है) के संस्कृत विश्वविद्यालय में बतौर प्रवक्ता की. उन्हें जानकार प्रवक्ता माना जाता था. वर्ष 1960 में वह जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बन गए. दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के दौरान उनका आध्यात्म की ओर गहरा लगाव शुरू हो गया. इसके बाद आध्यात्मिक गुरु के रूप में उन्होंने अपना करियर शुरू किया. इसके अगले चरण में उन्होंने पूरे भारत का दौरा कर राजनीति, धर्म और सेक्स पर विवादास्पद व्याखयान देना शुरू कर दिया.
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इस बीच उनके प्रशंसक और विरोधी दोनों ही मुखर होने लगे. कुछ समय बाद उन्होंने प्रोफेसर के पद से त्यागपत्र दे दिया. फिर चिंतामुक्त होकर पूरी तरह से आध्यात्मिक गुरु बन गए. वर्ष 1969 में उन्होंने मुंबई में अपना मुख्यालय स्थापित किया. एक साल पहले ओशो से मिली मां योग लक्ष्मी उनकी प्रमुख सहायक बन गईं जो वर्ष 1981 तक इस पद पर रहीं. यह भी हैरत की बात है कि इसी दौरान उनकी मुलाकात एक अंग्रेज़ महिला क्रिस्टीना वुल्फ़ से हुई. रजनीश ने महिला को संन्यासी नाम ‘मा योगा विवेक’ दिया. यह अलग बात है कि ओशो क्रिस्टीना वुल्फ को अपने पिछले जन्म की दोस्त मानते थे. कुछ समय बाद ही वह उनकी निजी सहयोगी बन गईं.

मौत का रहस्य कायम
युवावस्था में रजनीश को हमेशा सिरदर्द की शिकायत रही. पढ़ाई के दौरान भी उन्हें सिरदर्द रहता था. एक बार जब उनका सिरदर्द बहुत ज्यादा बढ़ गया तो उनके फुफेरे भाई क्रांति और अरविंद चिंतित हो गए. तंग आकर ओशो के पिता को बुलवाना पड़ा. ओशो के पिता का मानना था कि ज्यादा पढ़ाई करने के कारण रजनीश के सिर में दर्द होता है. स्कूल के दिनों से ही रजनीश अपने माथे पर बाम लगाकर पढ़ा करते थे.
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रजनीश की पूरी जिंदगी रहस्यों से भरी हुई है. इसी तरह उनकी मौत का रहस्य भी कम रोमांचक नहीं है. ओशो का मृत्यु प्रमाणपत्र जारी करने वाले डॉ. गोकुल गोकाणी लंबे समय तक उनकी मौत की वजहों को लेकर चुप रहे. यह अलग बात है कि समय बीतने पर उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि मृत्यु प्रमाणपत्र पर उनसे गलत जानकारी देकर दस्तख़त लिए गए. इसके बाद डॉक्टर गोकुल गोकाणी ने योगेश ठक्कर के केस में अपनी तरफ से शपथपत्र दाखिल किया. उनका दावा था कि ओशो की मौत के सालों बाद भी कई सवालों के जवाब नहीं मिल रहे थे और मौत के कारणों को लेकर रहस्य बरक़रार है. यही वजह है कि उन्हें केस दायर करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

‘दिल का दौरा पड़ा है’ लिखने के लिए डाला था दबाव
रजनीश ओशो के निधन पर ‘हू किल्ड ओशो’ शीर्षक से किताब लिखने वाले अभय वैद्य का कहना है कि 19 जनवरी, 1990 को ओशो आश्रम से डॉ. गोकुल गोकाणी को फोन आया था. उन्हें फोन करने वाले की ओर से कहा गया कि लेटर हेड और इमरजेंसी किट लेकर आएं. फोन आने के बाद वह करीब दो बजे पहुंचे, उनके शिष्यों ने बताया कि ओशो देह त्याग रहे हैं, आप उन्हें बचा लीजिए. यह कहा तो गया, लेकिन डॉ. गोकुल गोकाणी को उनके पास जाने तक नहीं दिया गया. डॉ. कई घंटों तक बेचैन होकर आश्रम में टहलते रहे. कुछ देर बाद ही उन्हें ओशो की मौत की जानकारी दी गई और कहा गया कि मृत्यु प्रमाणपत्र जारी कर दें. डॉ. गोकुल के अनुसार, ओशो की मौत के समय को लेकर संशय है. उन्होंने अपने हलफनामे में यह भी दावा किया है कि ओशो के शिष्यों ने उन्हें मौत की वजह दिल का दौरा लिखने के लिए दबाव डाला था. इसके बाद जाहिर है ओशो की मौत को लेकर उस समय बना सस्पेंस अब तक कायम है.

अंतिम संस्कार पर टूटा नियम
इससे भी बड़ी बात यह है कि ओशो के आश्रम में किसी संन्यासी की मृत्यु को उत्सव की तरह मनाने का चलन था. पहले भी कई बार मृत्यु पर उत्सव ही मनाया गया था, लेकिन ओशो के निधन पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. निधन की घोषणा के एक घंटे के भीतर ही ओशो का अंतिम संस्कार कर दिया गया और उनके निर्वाण का उत्सव भी संक्षिप्त रखा गया. यह कुछ सवाल हैं जो उनकी मृत्यु को रहस्य बनाते हैं. 19 जनवरी, 1990 को महाराष्ट्र के पुणे में रजनीश ‘ओशो’ का निधन हुआ था. कुल मिलाकर 20वीं सदी में हुई ओशो की मृत्यु के कारणों का रहस्य 21 वीं सदी में भी बरकरार है. यह भी कम रोचक नहीं है कि ओशो की मां आश्रम में ही रहती थीं, लेकिन उन्हें भी बेटे के निधन की जानकारी देर से दी गई.
ओशो की सचिव रहीं नीलम ने इंटरव्यू में यह दावा किया था कि ओशो की मां लंबे समय तक ये कहती रहीं कि बेटा उन्होंने तुम्हें मार डाला. उन्होंने कौन थे? यह रहस्य अब भी कामय है और शायद कायम ही रहेगा. सिर्फ 58 साल की उम्र में 19 जनवरी, 1990 को उन्होंने दुनिया से अलविदा कह दिया. इसके बाद पुणे (महाराष्ट्र) के उनके निवास ‘लाओ ज़ू हाउज़’ में उनकी समाधि बनाई गई. इसके टॉम्ब स्टोन पर लिखा गया- ‘ओशो, जो न कभी पैदा हुए, न कभी मरे. उन्होंने 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच इस धरती की यात्रा की.’

20वीं सदी के सबसे महान आध्यात्मिक गुरु
इसमें कोई शक नहीं है कि रजनीश ओशो महान दार्शनिक थे. उनके विरोधी भी दर्शन को लेकर उनका लोहा मानते थे. एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में रजनीश ने सदियों से चली आ रही धार्मिक धारणाओं और कर्मकांडों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज उठाई. इसके साथ ही ओशो ने धर्म और राजनीति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इन दोनों का एक ही मकदस है और वो है लोगों पर नियंत्रण करना. जाने-माने लेखक खुशवंत सिंह ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा था- ‘ओशो भारत में पैदा हुए सबसे मौलिक विचारकों में से एक थे.
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इसके अलावा वो सबसे अधिक विचारशील, वैज्ञानिक और नए विचारों वाली शख्सियत थे.’ वहीं, आध्यात्मकि गुरु से प्रभावित अमेरिकी लेखक टॉम रॉबिंस का मानना था कि ओशो की किताबें पढ़कर लगता है कि वह 20वीं सदी के सबसे महान आध्यात्मिक गुरु थे. कहा जाता है कि ओशो अपने हर शिष्य को लकड़ी की बनी एक माला देते थे जिसमें एक लॉकेट होता था. लॉकेट के दोनों तरफ ओशो का चित्र लगा होता था. आश्रम और ओशो की ओर से हर संन्यासी से यह आशा की जाती थी कि वह इस लॉकेट को पहने. एक बात और कि वह आश्रम में आने वाले प्रत्येक संन्यासी को एक नया नाम भी देते थे, जिससे वह भूतकाल से अपने आप को अलग कर सके. ओशो चाहते थे कि उनके शिष्य नारंगी या लाल कपड़े पहने.

पुणे से अमेरिका का रुख
कहा जाता है कि लंबे समय तक पुणे में रहने के बाद वहां से भी ओशो का दिल भर गया. इसके बाद उन्होंने अमेरिका के ओरेगन में एक आश्रम बनाने की योजना बनाई. उनका इरादा था कि आश्रम ऐसा हो जिसमें हजारों लोग एक साथ रह सकें. 31 मई, 1981 को वो मुंबई से अपने नए आश्रम के लिए रवाना हुए. कहा जाता है कि उनके 2000 से अधिक आश्रमवासी भी अमेरिका के लिए रवाना हुए. इनमें मशहूर फ़िल्म अभिनेता विनोद खन्ना भी थे, जिन्होंने ओशो से मिलने के बाद फिल्मों से संन्यास ले लिया था.
ओशो साल 1981 से 1985 के बीच अमेरिका में रहे. अमेरिकी प्रांत ओरेगॉन में उन्होंने आश्रम की स्थापना की. ये आश्रम 65 हज़ार एकड़ में फैला था. ओशो ने यहां पर 93 रोल्स रॉइस कारें खरीदीं. हालांकि, अमेरिका ओशो के लिए अच्छा साबित नहीं हुआ. उन पर नियमों का उल्लंघन करने के लिए मुकदमा चलाया गया. इस दौरान ओशो को 17 दिन अमेरिकी जेल में रहना पड़ा. जेल से निकले तो उन्होंने अमेरिका छोड़ने का मन बना लिया.
इसके बाद ओशो ने कई देशों में शरण लेने की कोशिश की, लेकिन एक के बाद एक सबने उन्हें अपने यहां लेने से इन्कार कर दिया. कहा जाता है कि 21 देशों ने उन्हें अपनी शरण देने से मना किया था. आखिरकार वो अपने देश भारत वापस आने के लिए मजबूर हुए. भारत लौटने के बाद वे पुणे के कोरेगांव पार्क इलाके में स्थित अपने आश्रम लौट आए. उनकी मृत्यु 19 जनवरी, 1990 में हो गई. उनकी मौत के बाद पुणे आश्रम का नियंत्रण ओशो के क़रीबी शिष्यों ने अपने हाथ में ले लिया. आश्रम की संपत्ति करोड़ों रुपये की मानी जाती है और इस बात को लेकर उनके शिष्यों के बीच विवाद भी है, जो अब भी जारी है.
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